"भेजा खप्परवाली?" 

 

मन मयूर के पहले अँक से ही हम पहाड़ी बाबा के सम्बन्ध में सामग्री दे रहे हैं। आशा है, पाठकों को यह पसन्द भी होगा। हम श्री कल्याण कुमार राय, प्राध्यापक, दुमका तथा श्री डी एन पाण्डेय, अधिवक्ता, पटना द्वारा रचित पुस्तकों से बारी-बारी से कुछ अंश उद्धृत करते हैं। अगर कोई पाठक पहाड़ी बाबा के जुड़ा अपना कोई संस्मरण भेजना चाहते हों तो उनका स्वागत है।

               

                 बिन्दुवासिनी आश्रम में बाबा के अवस्थान के कुछ ही वर्षों में नित्य महोत्सव लगा ही रहता था। प्रतिदिन इतनी संख्या में भक्त दर्शनार्थियों का समागम होता था और इतने लोग प्रसाद (अन्न आदि) पाते थे कि उसका कोई लेखा-जोखा नहीं था। कितनी बार तो ऐसा भी होता था कि रात बारह बजे के बाद भी आगन्तुकों के लिए रसोईघर का ताला खालेकर भोजन का बन्दोबस्त करना पड़ता था। माँ अन्नपूर्णा का वाराणसी धाम ने ही जैसे बिन्दुधाम का रुप धारण कर लिया था। प्रतिदिन अन्नकूट महोत्सव लगा रहता था। अगणित अतिथि भक्त प्रसाद पा रहे हैं। इतना अन्नदान होते कहीं भी नहीं देखा। विशेष उत्सवों की तो बात ही कुछ और थी। इतने अन्नदान की वयवस्था केसे होती थी, यह सोचकर भी आश्चर्य होता था।

                बाबा की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता थी किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना- जैसे, गीता की ‘‘यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः, हर्षामर्ष भयोद्वेगैर्मुक्तो ........’’ अवस्था की साकार मूर्ति। समय-समय पर इन परिस्थियों में उनकी अतिजागतिक शक्ति का प्रकाश देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।

                एकबार गुरूपूर्णिमा (आषाढ़ी पूर्णिमा) उत्सव का स्मरण हो रहा है। अनेक अतिथि भक्तों को बैठाकर भोजन कराया जा रहा है। दोपहर दो बजे तक लगातार भोजन चलाने के बाद परिवेशनकारियों ने सूचित किया कि अब जो प्रसाद (पूरी, मिठाई आदि) बचा है, उससे मुश्किल से दस आदमियों का भोजन हो सकता है। इधर प्रसाद प्रार्थियों की संख्या तब भी दो सौ से कम नहीं। भण्डार में कच्चा माल (आटा आदि) भी नाममात्र का है।

                समाचार सुनकर बाबा कुछ देर के लिए आँखें मूँदकर मौन रह गये। अचानक आसन छोड़कर उठ खड़े हुए। व्यस्त होकर भण्डार में घुसे। एक शालपत्ते पर कुछ पूरी मिठाई लेकर बाहर आकर उन्होंने आधा घण्टा के लिए परोसना बन्द रखने का आदेश दिया और स्वयं मन्दिर में घुसकर दरवाजा बन्द कर लिया।

                कुछ देर बाद बाबा का वज्रगम्भीर कण्ठस्वर सुनाई पड़ा, जो गगनभेदी था- ‘‘खप्परवाली भेजा?’’ इसके बाद प्रसाद का पत्ता लिये बाहर निकलकर उन्होंने पुनः भण्डार में प्रवेश किया और फिर परिवेशनकारियों को भोजन परोसने का आदेश दिया। इस बार नये उद्यम के साथ भोजन परोसना शुरु हुआ। शाम तक भक्तों को भोजन कराकर भी प्रसाद की सामग्रियाँ निःशेष नहीं की जा सकीं।

                और एक घटना भी लिखे बिना नहीं रहा जा सकता; जिसमें स्पष्ट होगा कि कितना साधारण आयोजन लेकर भी वे अविचलित रुप से काम में उतर जाते थे।

                अंग्रेजी 1966 की गोपाष्टमी की सुबह। बिन्दुवासिनी आश्रम में मैं पहुँचा- साहेबगंज जाना था- अभिलाषा लेकर कि चरणकमलों में प्रणाम करके ही यात्रा की जायेगी। कालिकानन्द जी के साथ बाबा गोपाष्टमी पूजा के लिए पूजन-सामग्रियों की तालिका बनाने बैठ गये। मेरी भी साहेबगंज यात्रा स्थगित हुई। यथानियम सिद्धि-सिन्दुर से लेकर ब्राह्मण दक्षिणा तक लिखा गया। सेवक ब्रह्मचारी से पूछकर मालूम हुआ कि माँ के भण्डार में पैसे सिर्फ 6-7 आने ही बचे थे।

                बाबा की मुद्रा विकारहीन रही, किसी मानसिक विचलन का लेशमात्र नहीं। उसी क्षण मुझे अनुभव हुआ- साधारण आदमी और ऐसे महात्मा के बीच अन्तर। एक भक्त ने अपने पॉकेट से जो कुछ था- निकालकर दे दिया। कुल 2-3 रुपये ही हुए। फिर नये सिरे से तालिका को संक्षिप्त रुप दिया गया। बाबा का कहना था- इसीसे माँ के भोग की व्यवस्था तो कर। उसके बाद माँ की इच्छा।’’

                इसी साधारण आयोजन से उत्सव प्रारम्भ हुआ। दिन बढ़ने के साथ-साथ एक-दो करके भक्त लोगों की भी संख्या बढ़ने लगी। किसी के साथ आया है फल-मिठाई का सम्भार, तो किसी के साथ तरह-तरह की शाक-सब्जियाँ। दस बजते-बजते साहेबगंज से आ पहुँचा किसी धनवान भक्त का भेजा आटे का एक बोरा और घी का टीना। कहाँ से जो क्या होने लगा- पता ही नहीं चला। दोपहर होते-होते अगणित अतिथियों का भोजन होने लगा। भारी संख्या में लोग आ रहे हैं, बैठकर भोजन कर सन्तोष के साथ लौट रहे हैं। शाम के समय दरिद्रनारायण सेवा में भी नारायण की अनेक मूर्तियों की सेवा हो गयी। गौशाला के चारों ओर मेला भी लग गया।

                रात को हिसाब करके देखा गया कि लगभग डेढ़ हजार लोगों को भोजन दिया गया था। भले ही आरती के समय माँ के मन्दिर में प्रणामी का पात्र, जो बहुत बड़ी एक थाल थी, परिपूर्ण हो चुका था भक्तों के दिये गये भक्ति अर्घ्यों से।

                रात में उत्सव का कोलाहल समाप्त हो जाने पर सेवक ब्रह्मचारीजी ने बाबा को सुबह की स्थिति की याद दिलायी। बाबा के प्रशान्त मुख पर वह मुस्कान विकसित हुआ, जो एकमात्र उन्हीं के मुख पर सम्भव है, जिनका जीवन कमल अमरलोक की किरण के स्पर्श से विकसित हुआ हो। उन शान्त गम्भीर महापुरुष के श्रीमुख से उच्चारित हुई यह वाणी-

                ‘‘यदि तुममें सद्भावना हो, तो उसी को पूँजी बनाकर कर्मक्षेत्र में उतर जाओ। सोचना नहीं कि कैसे होगा। तुम सोचने वाले कौन होते हो? इच्छामय के हाथों में हमलोग खिलौने ही हैं। क्या साध्य है कि अपनी शक्ति से उनकी परिकल्पनाओं को बदल डालें! अतएव, उतर जाओ, चिन्तामणि ही चिन्ता करेंगे।’’

                बाबा की आश्वासन भरी वाणी से गीता में भगवान की उस वाणी की ही याद आ जाती है-

                ‘‘न हि कल्याण कृत् कश्चिद्दुगंति तात गच्छति।’’

(साभार: “मन मयूर”)

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