बरहरवा में "पहाड़ी बाबा" का आगमन 

 

मन मयूरके दूसरे अंक (नवम्बर’06) में आपने श्री कल्याण कुमार राय (दुमका में संस्कृत प्राध्यापक तथा रिशोढ़ के मूल निवासी) द्वारा रचित पुस्तक परमहँस पहाड़ी बाबाः स्मृतिकथासे एक अध्याय (मैं तो कलाई दाल खाऊँगा) पढ़ा था। उसी पुस्तक से शुरु के दो अध्याय यहाँ उद्धृत किये जा रहें है। खासकर नई पीढ़ी के लिए . . .

               

                पुण्यभूमि भारतवर्ष। इसकी गोद में युगों से बने हैं कितने सारे मठ-मन्दिर आदि। आकाश को चूमनेवाले कितने ही देव निकेतन। अनेक सम्प्रदायों की भिन्न-भिन्न साधना की धाराएँ  सम्मिलित हुई हैं इस पुण्यभूमि में। प्राचीनकाल से यहाँ आविर्भूत हुए हैं कितने ही मुनी-ऋषि तथा साधू-सन्यासी। पथभ्रष्ट मानव जगत को जिन्होंने सदा दर्शाया है उचित पथ; सुनाया है शान्ति की वाणी। इनके कण्ठ में ध्वनित हुई है भारतात्मा की शाश्वत वाणी- ‘‘भूमैव सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति।’’

                लोकनयन के अन्तराल में, पर्वत की कन्दराओं में, परमात्मा के ध्यान में समाहित होकर जो अनायास ही युगों को व्यतीत कर सकते थे; वे देवकल्प महापुरूष लोग समय-समय पर जीव दुःख से कातर होकर इस संसार रुपी रंगमंच में रहकर केवल परोपकार एवं लोकशिक्षा के लिए शरीर धारण करते हैं।

                राजमहल पर्वतमाला की तराईयों में सन्थाल-परगना जिले (अब साहेबगंज जिला) में बरहरवा रेलस्टेशन से करीब एक मील पश्चिम पहाड़ी के शिखर पर एक मातृ मन्दिर है। सुदीर्घ सोपान श्रेणी पर्वत के पाददेश से पहुँचती है मन्दिर तक। मन्दिर के अन्दर महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती- त्रिमूर्तियों में प्रतिष्ठित हैं जगज्जननी। साधना के गम्भीर स्तर में प्रवेश करने पर साधक विन्दु में समाहित हो जाता है; फिर विन्दु से ही सृजित है यह जगत-प्रपंच। इसी विन्दु में नित्यस्थिता हमारी माता ‘विन्दुवासिनी’ नाम से संसार में प्रसिद्ध हैं।

                पृष्ठभूमि में गगन को चूमते ऊँचे पहाड़। सायंकाल में अस्तगामी सूर्य की किरणों से इनके शिखर-प्रदेश लाल-लाल हो उठते हैं। ऊँचे-ऊँचे साल, महुआ, सेमल वृक्षों की कतारें इनकी वन्यशोभा को हमेशा के लिए सुन्दर बनाये रखती हैं। मानो, प्रकृति की देवी नित्य-प्रतिदिन तरह-तरह के उपहारों के द्वारा यहाँ विराटरुप की पूजा कर रही हो। यहाँ की हवा बनफूलों के  सुगन्ध से सदा सुगन्धित है तथा चिडि़यों के कोलाहल से सदा मुखरित है।

                प्रकृति के लीलाक्षेत्र इस पावन मातृपीठ में एक ऋषिकल्प महापुरूष का शुभागमन हुआ 1960 ई0 के जेठ महीने के एक पुण्य प्रातःकाल में। स्थानीय लोगों ने विस्मय के साथ इस महापुरूष का दर्शन किया। योगीजनोचित दीर्घ शरीर, तेजःपुञ्ज कलेवर, अजानुलम्बित भुजाएँ, सिर पर जटाभार, परिधान में त्याग-वैराग्य का प्रतीक गैरिक वस्त्र, दाढ़ी से भरे बदन-मण्डल में जैसे एक अज्ञात जगत की दिव्यज्योति।

                अपनी लम्बी अवधि की कर्मभूमि पश्चिम बँगाल के मेदिनीपुर जिलान्तर्गत भद्रकाली योगायतन से एकदिन अचानक वे निरुद्दिष्ट हो गये। जमशेदपुर, राँची होकर पाकुड़ आ पहुँचे। वहाँ के लोगों ने इस अज्ञात साधू को बरहरवा के विन्दुवासिनी का पता दिया। (तब विन्दुवासिनी मन्दिर एक कमरे का छोटा-सा मन्दिर था- स.) रेलगाड़ी से आ पहुँचे बरहरवा। स्टेशन पर उतरकर ऊँचे स्वर में हाँक लगाया, ‘‘इस स्टेशन का मालिक कौन है जी......।’’ तत्कालीन स्टेशन मास्टर शंकर बाबू बाहर निकल आये। इस दीर्घशरीर जटाजूटधारी व्यक्तित्वपूर्ण विराट पुरुष के प्रथम दर्शन में ही वे प्रभावित हो गये। सन्यासी ने पूछा कि यहाँ दो-चार रोज ठहरने के लिए कोई स्थान मिल सकता है कि नहीं। इसी बीच आस-पास से दो-चार करके लोग जुटने लगे। उनके चेहरे पर था विस्मय तथा कौतूहल का चिन्ह। ऐसा साधू तो इधर कभी देखा नहीं जाता है!! खैर, किसी ने चिरंजीव बाबू के धर्मशाला का ठिकाना बताया। उस रात धर्मशाला में रहकर दूसरे दिन सुबह बिन्दुवासिनी पर्वत के मातृमन्दिर में पहुँचे। परिधान में एकमात्र गैरिक वस्त्र, जगह-जगह फटा हुआ। हाथ में एक पीतल का जलपात्र और एक अंग्रेजी अखबार। उस पुण्य प्रातःकाल में बिन्दुवासिनी देवीपीठ में एक नये अध्याय का प्रारम्भ हुआ।

                मन्दिर में मातृपूजा का भारप्राप्त एक आँख वाले वृद्ध पण्डा रहते थे। सुना जाता है कि वे अवकाशप्राप्त पुलिस कर्मचारी थे और नाम था- नगीना सिंह। मातृमन्दिर के लिए कोई भूसम्पत्ति या आमदनी का दूसरा रास्ता न रहने के कारण यात्रियों से प्राप्त प्रणामी और भिक्षा से ही उनका गुजारा होता था। यात्रियों के साथ उनका व्यवहार ठीक नहीं था।

                नवागन्तुक साधूबाबा ने आसन जमाया मन्दिर के पीछे वटवृक्ष के नीचे। पण्डा जी ने इस नवागत को प्रीति की नजर से नहीं देखा। नितान्त अवहेलना के साथ कभी-कभी थोड़ा-सा चना या एकाध लड्डू से उनका सत्कार करने लगे। मन्दिर में आये हुए भक्तों द्वारा इस साधू के बारे में पूछे जाने पर बहुत ही अवहेलना के साथ जवाब देते। केवल इतना ही नहीं, एक रात साधू बाबा को उन्होंने बुलाया, ‘‘आओ बंगाली बाबा, जरा-सा गोड़ दबाओ- हम तुमको ‘‘एलेम’’ सिखायेगा।’’ निरभिमान ब्रह्मज्ञ पुरूष इस अशिक्षित पण्डाजी की पदसेवा में लग गये। वे तो सभी अवस्थाओं में समज्ञान, स्तुती एवं निन्दा में समभाव विशिष्ट हैं। हाय मूर्ख पण्डाजी, तुमको तो मालूम नहीं कि किनके हाथ से सेवा ले रहे हो? कितनी बड़ी गलती कर रहे हो? जिनकी चरणधूलि के लिए संसार लालायित है, मोक्ष जिनके करतलगत है, वह स्थितप्रज्ञ ब्रह्मविद्वर आज तुम्हारे पदतल में बैठकर सेवा कर रहे हैं। भला इससे विचित्र क्या हो सकता है!!

                अस्तु कभी अर्द्धाहार से तो कभी निराहार से वृक्षमूल की भूशैय्या पर साधूबाबा के दिन कटने लगे। बातचीत बहुत ही कम करते थे। अपने विशाल व्यक्तित्व को मानो लोकनयन से सावधानी के साथ छुपाकर रखने लगे। परन्तु यह कहाँ तक सम्भव था? मन्दिर में आने वाले दर्शनार्थी पहले तो वटवृक्ष के नीचे विशाल शरीर, उन्नतदर्शन, प्रशस्तललाट, जटाजूट श्मश्रुधारी इन सन्यासीवर के प्रथम दर्शन से ही आकृष्ट हो जाते थे; फिर मुँह से दो-चार बातें सुनने के बाद पूर्णतः प्रभावित हो जाते थे। जिनके साथ एकबार बात करते थे, उनके मन में एक परम आत्मीयता का भाव जागृत हो उठता था। कितना अपनापन भरी मीठी बोली! जैसे अपरिचित नहीं, बल्कि नितान्त परिचित किसी पूर्वजन्म के परम आत्मीय हों। मानो यही हैं सभी निराशाओं की आशा, शान्ति की सुशीतल स्वच्छ सरिता की धारा।

                घने जंगल के बीच एक सुगन्धित फूल खिलने पर भौंरे आकृष्ट होकर तुरन्त पहुँचते हैं, उसी प्रकार चारों तरफ से तृष्णार्त्त नर-नारी उनके पास पहुँचने लगे। देखते-ही-देखते यह समाचार चारों दिशाओं में फैल गया कि बरहरवा बिन्दुवासिनी पहाड़ पर पहुँचे हैं एक महान योगी। विशाल शरीर, चेहरे पर बड़ी-बड़ी दाढ़ी, सिर पर विशाल जटा-जूट। बस- इतना ही? नहीं- ऐसी जटा-दाढ़ी वाले साधू-महात्मा तो हमेशा हाट-बाजार में मिलते हैं। तो फिर इनकी विशेषता क्या है, जिससे आकृष्ट होकर इतने लोग इनके पास दौड़कर पहुँचते हैं? यह है उनकी अमीर-गरीब सभी को अपना कर लेने की अद्भुत क्षमता। स्वयं एक विशिष्ट व्यक्ति बनकर सभी को दूर नहीं रखकर पिता का स्नेह देकर सभी को समीप ले आना ही इनकी विशेषता है। जो उनके पास एकबार जाता है उनकी बातचीत तथा सद्व्यवहार से उनको अपना समझ लेते हैं। उनके पास किसी भी समस्या को अकपट रुप से कहकर शान्ति मिल जाती है; दो घड़ी पास बैठने पर हृदय की ज्वाला शान्त हो जाती है। तभी तो एकबार दर्शन से मन भरता नहीं है, दुबारा देखने के लिए व्याकुल हो उठता है।

                इस कारण लोगों की भीड़ बढ़ती चली। सभी लोग आकर मन्दिर में एकबार जैसे-तैसे प्रणाम करने के बाद ही साधूबाबा के पास आ बैठते। वे भी सुमधुर आलाप से उन्हें अपना बना लेते।

                इधर पण्डाजी से यह सहा नहीं जा रहा था। जो आता वही सीधे ‘‘बंगाली बाबा’’ के पास जा बैठता और उनकी तरफ ताकता भी नहीं था। उपायहीन बेचारे मन-ही-मन विद्वेष की आग में जलने लगे थे और इस अवांछित आगन्तुक की विदाई करने का उपाय ढूँढ़ रहा थे।

                स्थिति चरम सीमा में पहुँची, जिस दिन शाम के समय स्थानीय कुछ नवयुवक पहुँचे साधूबाबा के पास। उस दिन माँ के भोग में खीर चढ़ा था। साधूबाबा उस खीर प्रसाद से कुछ लेकर उन युवकों में बाँट रहे थे। यह बात पण्डाजी की नजर में आ गयी तो वे क्रोध से आगबबूला हो गये और उन युवकों के जाते ही चिल्लाते हुए साधूजी को गाली-गलौज करने लगे। इतना ही नहीं, अचानक रसोईघर से एक बड़ा लकड़ी का टूकड़ा उठाकर उनको मारने के लिए दौड़ पड़े। संयोग से एक सन्थाल माली ने पण्डाजी को पकड़ लिया और साधूबाबा प्रहार से बच गये।

                विकारशून्य साधूबाबा ने इस घटना पर कोई प्रतिवाद नहीं कर वटवृक्ष के नीचे आकर अपना आसन समेटकर जलपात्र हाथ में उठा लिया। मन्दिर के सामने आकर आँसू भरी आँखों से माँ बिन्दुवासिनी को प्रणाम किया और सीढि़यों से नीचे उतर आये।

                इतने कम दिनों में ही परिचित लोगों की संख्या कम नहीं थी। बरहरवा स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठे इस मलिन मुख वाले साधूजी को देखकर एक-दो करके सब जुट पड़े। सभी के मुख से यही प्रश्न आ रहा था- ‘कहाँ चले बाबा....... क्यों?’

                साधूजी मौन धारण किये हुए थे, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। आखिर बरहरवा के कुछ विशिष्ट लोग उनको समझा-बुझा कर एक गद्दी पर लाये और इस प्रकार आकस्मिक प्रस्थान का कारण पूछा। बहुत मनाने पर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘जो इतने दिनों से इस मातृमन्दिर की सेवा में है उन्हें ही शान्ति से रहने दो। मेरे चलते उनकी शान्ति विघ्नित हो यह मैं नहीं चाहता हूँ।’’

                साधूबाबा के इस बयान से लोगों को बात की गम्भीरता का अन्दाज हुआ। विनती करते हुए सभी उन्हें बिन्दुवासिनी मातृपीठ में लौटा लाये। वहाँ अनुसन्धान करने पर माली से सबकुछ मालूम हुआ। लोगों ने कठोर भाषा में पण्डाजी का तिरस्कार किया और यह भी निर्णय लिया कि साधूबाबा इसी मन्दिर में स्थायी रुप से रहेंगे। उनकी किसी प्रकार से अमर्यादा नहीं होनी चाहिए।

                सन्यासी इस एक शर्त को मानने के लिए राजी नहीं हुए। ‘‘ठीक है, जब तुमलोगों की यही इच्छा है तो मैं रहता हूँ। लेकिन सदा के लिए कोई वादा नहीं कर रहा हूँ। अपने मन से जैसे अचानक आ पहुँचा, वैसे ही जिस दिन मन होगा, चला जाऊँगा।’’ उन्होंने कहा।

                साधूबाबा की सेवा के लिए बन्दोबस्त किया गया। प्रतिदिन माँ का अन्न भोग होगा, वे वही प्रसाद लेंगे। इस प्रकार बिन्दुवासिनी मातृपीठ में प्रतिष्ठित हुए साधूबाबा, श्रीमत् स्वामी हरिहरानन्द गिरि महाराज। कुछ ही दिनों में अगणित भक्तजनों के लिए जिनका एकमात्र परिचय हुआ- ‘‘बाबा’’।

(साभार: “मन मयूर”)

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