"मैं तो कलाई दाल खाऊँगा"  

 

‘‘पहाड़ी बाबा’’ को श्रद्धाँजली देते हुए एक और पुस्तक ‘‘परमहँस पहाड़ी बाबा (स्मृतिकथा)’’ नाम से श्री कल्याण कुमार राय ने लिखी है। आप एस.पी. कॉलेज, दुमका में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष हैं। वैसे, मूल निवासस्थान आपका रिशोढ़ है। इस पुस्तक से भी एक छोटा-सा अंश-

 

               पहले ही कहा गया है कि उनके दुर्लभ संग में रहकर कुछ ऐसी भी घटनाओं का साक्षी बना, जिन्हें साधारण रुप से अलौकिक ही कहा जाएगा। परन्तु उनके पास जिस किसी ने भी कुछ अलौकिक कर दिखाने का अनुरोध किया- उसे तिरस्कृत ही होना पड़ा। कोई चमत्कार दिखाकर लोगों को स्तम्भित कर देना वे कभी नहीं चाहते थे। फिर भी, छिट-पुट कुछ ऐसी घटनाएँ घट ही जाती थीं, जिन्हें देखकर या सुनकर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहा जाता। प्रासंगिक समझकर ऐसी कुछ घटनाएँ लिखी जा रहीं हैं।

                बाबा दोपहर में भोजन पर बैठे हैं। खाना परोसा गया। अचानक अभिमानी बालक जैसा हाथ उठाकर वे बोले, ‘‘कलाई का दाल खाऊँगा।’’ सेवक ब्रह्मचारी जी विडम्बित हुए। पहले तो कुछ नहीं कहा- अब अचानक कलाई दाल कहाँ से मिले? लेकिन यह पद न मिलने पर माँ विन्दुवासिनी के ये लाडले तो खाना खाएंगे ही नहीं!

                थाली सामने लेकर बाबा बैठे ही हैं। ग्रीष्मकाल की भरी दुपहर। अचानक पसीना-पसीना होकर कुटिया में प्रवेश किया बरहरवा वाली एक दीदी ने। हाथ में ‘‘टिफिन कैरियर’’। बाबा के लिए कुछ पकाया हुआ भोज्य पदार्थ लाई हैं। इस कड़ी धूप में बरहरवा से प्रायः दौड़ती हुई आई हैं- इस शंका से कि समय पर नहीं पहुँचने पर बाबा का भोजन हो जा सकता है।

                बालक के समान उत्सुकता के साथ बाबा टिफिन कैरियर खोलते हैं। ऊपर की दो कटोरी में दो-तीन प्रकार की सब्जियाँ, नीचे की कटोरी में कलाई की दाल। आनन्दमय पुरुष बाबा ने अब बहुत खुशी के साथ कलाई की दाल के साथ भोजन आरम्भ किया। इतना कष्ट सहकर जो उनके लिए इतनी सामग्रियाँ लेकर आ रही थीं, करूणामय अन्तर्यामी उन्हें छोड़कर कैसे भोजन कर लेते? इस छोटी-सी घटना में जो अलौकिक चमत्कार था उसका मूल्य उनके पास भले ही कुछ नहीं, लेकिन इस घटना के उपस्थित साक्षी भक्तों के लिए इसका मूल्य कम नहीं था।

                ***

                सुना जाता है कि महापुरुष लोग दूसरे के दुःख में व्याकुल होकर उसका भोग अपने ही शरीर में कर लेते हैं। शरणागत भक्त का दैहिक भोग अपने शरीर में आकर्षित कर भक्त को विपत्ती से मुक्त कर देते हैं। जीवन्मुक्त पुरुष बाबा के सामयिक शारीरिक रोग इन्हीं कारणों से होते थे। इस विषय का प्रकृष्ट प्रमाण मिला था इस घटना से-

                एक दिन आश्रम जाकर देखा बाबा बुखार से पीड़ित होकर वेदी पर सोए हुए हैं। पैरों के पास बैठकर धीरे-धीरे मैं उनके पैरों को सहलाने लगा। मालूम पड़ा पैर के तलवे जगह-जगह से छिल गए थे और स्फीट जैसा हो गया था। इसका कारण पूछा। बुखार में करीब बेहोशी की अवस्था में, आँखें बन्द किए ही, अस्पष्ट स्वर में बाबा कहने लगे-

                ‘‘नंगे पैर देवघर से बासकीनाथ...... रास्ता में बेहोश...... सभी बात में बाबा...... स्फीट तो पड़ेगा ही..... ।’’ उनके इन अधूरे शब्दों का अर्थ समझ में आया। किसी पैदल चलने वाले तीर्थयात्री के शारीरिक कष्टों को करूणामय बाबा अपने शरीर में भोग रहे थे।

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                मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी उनकी कृपा से ऐसी एक घटना घटी है, जिसमें उनके सर्वव्यापित्व का परिचय मिलता है। बाबा प्रायः कहा करते थे- ‘‘अरे! यह हड्डी-मांस का पिंजड़ा ठो (स्थूल शरीर) दूर रहने पर क्या समझते होकि गुरू दूर चले गए? सूक्ष्म शरीर में मैं तो तुमलोगों के साथ हमेशा हूँ। जब ही तेरा प्रयोजन होगा, ठीक से बुलाने पर आवाज मिलेगा ही!’’ यह उनका खाली मौखिक वादा नहीं था- बल्कि वास्तव था। अपने जीवन से ही इसका अनुभव प्राप्त किया।

                बात 1973 की है। बाबा उस समय जयपुर में हैं। भागलपुर विश्वविद्यालय से स्वतंत्र परीक्षार्थी के रुप में संस्कृत में एम.ए. का परीक्षा दिया। उत्तम फल की ही आशा थी। रिजल्ट निकलने के कुछ ही दिन पहले विश्वविद्यालय के अधिकारियों का एक निर्दय पत्र आ पहुँचा- मेरे सभी पेपर कैन्सल हो गए हैं! अपराध यही था कि मैंने कुछ आलोचनात्मक प्रश्नों के उत्तर अपनी मातृभाषा बँगला में लिखा था; क्योंकि प्रश्न के ऊपर ‘‘मातृभाषा में लिखें’’ ऐसा निर्देश था। लेकिन विश्वविद्यालय के नियम से एम.ए. परीक्षा में बँगला में लिखना वर्जित था। इसी गलती से मेरा उत्तरपत्र कैन्सल हो गया था।

                इस हालत में मैं तो बिलकुल घबरा गया। इतने दिनों का श्रम बेकार हो गया। उपाय की आशा लिए बहुतों के पास दौड़ा। सबने बेकार की सान्त्वना देते हुए अगली परीक्षा में बैठने का सलाह दिया।

                सन्ध्या के समय पूजाघर में आसन पर प्रतिष्ठित बाबा के फोटो के सामने बहुत देर तक बैठा रहा। मेरा मौन आवेदन आँसू के रुप में बहने लगा। उसी रात एक स्वप्न दर्शन हुआ। वह स्वप्न था, लेकिन वास्तव-जैसा स्पष्टः

                किसी अपरिचित स्थान में भक्तों से घिरे बाबा बैठे हुए हैं। वहीं एक कोने में मैं खुद बैठा हूँ, चिन्ता से खिन्न- मुरझाया। मुझपर नजर पड़ते ही बाबा ने ईशारे से नजदीक बुलाया। पास जाकर बैठा। पूछे, ‘‘क्या बात है?’’ व्याकुल भाव से परिस्थिति के बारे में बताया। बाबा ने विश्वविद्यालय की चिट्ठी देखनी चाही। दिखाया। देखकर तुरन्त उसे फाड़ डाला। मैंने चौंककर कहा, ‘‘आपने इसे फाड़ डाला!’’ बाबा हँसे और बोले, ‘‘पागल, एकठो पुराना इलेक्ट्रिक बिल लाया है।’’ कागज का एक टुकड़ा उठाकर देखा कि बात सही है। दिमाग की अस्थिरता के कारण एक पुराना बिजली बिल ही मैं ले आया था। बाबा आँख मूँदकर कुछ देर तक मौन रहे और फिर आँख खोलकर बोले, ‘‘अच्छा जा, देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।’’ इसी के साथ मेरी नीन्द टूटी। इस चिन्ता के साथ सुबह हुई कि ‘देवेन’ कौन है? सम्बन्धित सभी लोगों से तो मिला, लेकिन उनमें से किसी का नाम ‘देवेन’ नहीं है।

                अन्ततः यही सोचा कि एकबार स्वयं कुलपति से मिलकर अन्तिम प्रयास किया जाए। एक माननीय अंग्रेजी अध्यापक से एक दरख्वास्त कुलपति के नाम लिखवाकर टाईप करा लिया और समय लेकर कुलपति से जा मिला। सौम्यदर्शन वयोवृद्ध कुलपति को दरख्वास्त देकर अपनी मजबूरी के बारे में विनम्र ढंग से कहा। विशेषकर दरख्वास्त में ‘‘मातृभाषा’’ के विन्दु पर ध्यान आकृष्ट किया। माननीय कुलपति ने मेरे आवेदन को ध्यान से पढ़कर इस पर सहानुभूतिपूर्ण विचार का आश्वासन दिया।

                कुलपति के कमरे से द्विधाग्रस्त मन लेकर निकल आया। मन में तब भी ध्वनित हो रही है स्वप्न की वह वाणी- ‘देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।’ सोचा, जिनके हाथ में अन्तिम फैसला है, उन कुलपति से भी तो मिला- लेकिन कौन है यह देवेन? गेट के पास पहुँचकर एक विद्यार्थी को इधर आते देखकर पूछा, ‘‘अच्छा भाई, कुलपति का नाम क्या है?’’ उत्तर मिला, ‘‘देवेन्द्रनाथ सिन्हा।’’

                चौंक उठा! ठीक तो! कुलपति का नाम तो मेरा अज्ञात नहीं था, सामयिक रुप से भूल गया था। लेकिन किसने सोचा था कि विश्वविद्यालय के कुलपति देवेन्द्र सिन्हा ही स्वप्ननिर्दिष्ट बाबा के ‘देवेन’ हैं! उस समय भाव-विह्नल अवस्था में चलने की शक्ति खोकर गेट पर ही बैठ गया। कानों में तब भी वही आवाज गूँज रही थी- ‘‘देवेन से मिल ले, सब ठीक हो जाएगा।’’

                अब समझने में बाकी न रहा, सुदूर जयपुर में भी मेरी प्रार्थना की व्याकुल आवाज उन नरदेवता के कानों में ठीक पहुँच गई है! भरोसे से भरी उनकी वाणी- ‘‘मैं जहाँ भी रहूँ, सदा सूक्ष्म शरीर से तूलोग के पास रहूँगा।’’ को उस दिन, उसी क्षण सम्पूर्ण हृदय से अनुभव किया।

                कुछ ही दिनों में रिजल्ट निकला। स्वप्न में प्राप्त प्रतिश्रुति के अनुसार ‘‘सब ठीक’’ हो भी गया। माननीय कुलपति ने मेरे आवेदन पर सहानुभूतिपूर्ण विचार किया और मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया।

(साभार: “मन मयूर”)

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